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अपनी मर्जी से कहाँ अपने सफर के हम हैं। रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं।

अपनी मर्जी से कहाँ अपने सफर के हम हैं। रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं।

(ग़ज़ल निदा फ़ाज़ली साहब ) अंतरा -१


पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है,


पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है,

अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं ...
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम . हैं ..


रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
अपनी मर्जी से कहाँ अपने सफर के हम हैं। अंतरा -२


वक्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से.

वक्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से.

किसको मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं ..
किसको मालूम कहा के है किधर के हम हैं ...

रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
अपनी मर्जी से कहाँ अपने सफर के हम हैं। अंतरा (३ )


चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफिर का नसीब।

चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफिर का नसीब।

सोचते रहते हैं किस रहगुज़र के हम है.
सोचते रहते हैं किस रहगुज़र के हम है.

रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं ...
अपनी मर्जी से कहाँ अपने सफर के हम हैं।
अपनी मर्जी से कहाँ अपने सफर के हम हैं।

सन्दर्भ -सामिग्री :

https://www.youtube.com/watch?v=rlqQ8RNT9vQ

 सारसंक्षेप -भावसार-मंतव्य  :जिधर प्रारब्ध ले जाए व्यक्ति पहुँच जाता है उसके हाथ  में खुद कुछ नहीं होता। (परम्परा गत चिंतन )

दो मेड़ों के बीच की लड़ाई है मेरा ही 'कल का पुरुषार्थ '(प्रयत्न )और 'आज का  पुरुषार्थ।' जिसका प्राबल्य होगा बाज़ी उसी के हाथ लग जायेगी। यानी  वर्तमान का प्रबल पुरुषार्थ कल के प्रारब्ध को बदल भी सकता है। जहां हम खड़े होते हैं वहीँ से हवा चलती है। (अखंड रामायण / वशिष्ठ  रामायण )

(१ )वक्त के साथ चीज़ें बदल जातीं हैं रुख बदल जाते हैं आदमजात के। और हवा कभी भी एक सी नहीं  चलती। वक्त भी कब किसका यकसां रहा है यहां सब कुछ तेज़ी से बदल रहा है। सात साल में तो आदमी की सारी  चमड़ी  बदल जाती है। सुनिश्चित अंतराल के बाद तमाम बॉडी सेल्स भी (कोशिकाएं ) . ये शरीर मेरा घर ही तो है जब यही बदल जाता है तो बाहर से तो सब कुछ बदलेगा ही मलाल कैसा ,किसका ?

(२ )अनंत कोटि जन्म हो चुकें हैं मेरे ,ये कौन सा जन्म है कोई क्या जाने।कौन से जन्म में हम कहाँ थे किसे मालूम है फिर इस जन्म में कहाँ से  हम आये हैं कोई क्या जाने।

गीता में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं :अर्जुन तेरे और मेरे अनेक अवतरण (जन्म )हो चुके हैं मैं उन सबको ( अवतरणों  को )जानता हूँ तुझे नहीं मालूम।

(३ ) ये ज़िंदगी खुद  मुसाफिर खाना है, सफर तो आना -जाना है।

 पुनरपि जन्ममं पुनरपि मरणंम ,

पुनरपि जननी जठरे , शयनमं।

 नदिया चले चले रे धारा ,चंदा चले चले रे तारा।

तुझको चलना होगा  ...

कण ,प्रति - कण , में इलेक्ट्रॉन ,एंटी -इलेक्ट्रॉन अनंत काल से गतिवान हैं अनंत का तक ऐसा ही होता रहेगा। सृष्टि का कोई भी कण विराम अवस्था में नहीं है।

गीता में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं : हम चाहे तो भी बिना कर्म किये  पलांश भी नहीं रहे सकते ,फिर चाहे वह हमारी ,जागृत ,स्वप्न ,सुसुप्ति अवस्थाएं हों या तुरीय अवस्था। अर्जुन तू क्षत्री है बिना कर्म किये नहीं रह सकता अत : उठ खड़ा हो शस्त्र उठा।

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