एक टिपण्णी ब्लॉग ईस्वामी जी के चिठ्ठे पर :
पहले टिपण्णी दी गई है फिर मूल चिठ्ठा प्रारूप दिया गया है पूरा चिठ्ठा परोसा गया है जिसका लिंक निम्न है। : https://web.archive.org/web/20101123103200/http://hindini.com/eswami/archives/132
टिपण्णी :ई -स्वामी जी सबसे पहले वीरुभाई के प्रणाम स्वीकारें। बढ़िया आलेख मनोवैज्ञानिक पहलुओं को भी आपने उद्घाटित किया -अटेंशन सीकिंग बिहेवियर (ध्यान खेंचू व्यवहार )ज्यादार तर बालकों में होता है इधर एक इक्यावन साला भावनात्मक रूप से अस्थिर बालक दिखलाई दे रहा है आठों पहर यहां तक के इन्हें ट्रॉलाचार्य भी कहा जाने लगा है। राजनीतिक दूकान इनकी बंद है इसलिए ये वेबिनाराचार्य बन गए हैं नित्य ट्रोल करना इनका शगल है। ये राजनीति के महाविदूषक हैं। महाविघ्न संतोषी हैं। नाम इनका सब जानते हैं हम क्यों ट्रोल करें। कहाँ से आया यह ट्रोल शब्द ?इसकी व्युत्पत्ति या निष्पत्ति कैसे कहाँ हुई ?
Troll
A troll is a supernatural creature who is either very big or very small, ugly, and not very nice. You're most likely to read about a troll in a fairytale — perhaps trying to trick a beautiful princess into marrying him!
You’ve probably come across a troll before, maybe in The Lord of the Rings. As a verb, to troll means to wander around. You may have heard of a trolley, which is a vehicle that helps you travel around a city. The word troll more generally refers to anything that repeats itself regularly. You might troll a city, searching for a trolley, or you might troll parts of a song, repeating them one after the other to annoy your neighbors!
संक्षेप में परीकथाओं का एक काल्पनिक पात्र है ट्रोल। ड्रेगन की तरह काल्पनिक ,विकर्षी। स्कैंडिनेवियाई लोककथाओं में ट्रोल येति की तरह ही कोई पात्र है जो अति-दैवीय ,करिश्माई ,कौतुकी ,बौना ,या दैत्याकार है ,जो या तो गुफाओं में रहता है या फिर पर्बतों पर।
कांग्रेसियों का राजदुलारा लाडला ट्रोल तो साल में ३०० बार तो विदेश जाता है। रोज़ वेबिनार करता है। दादालाई राजनीति की कदीमी दूकान बंद होने के बाद और आदमी करे भी तो क्या सिवाय ट्रॉल्लिंग के ?इति।
चिठ्ठा ईस्वामी का :
By eswami on April 20, 2007
ट्रोल इन्टरनेट पर उस व्यक्ति को कहा जाता है जो जानबूझ कर संवेदनशील मुद्दों पर आपत्ति -जनक, अपमानजनक और भड़काऊ बातें लिखता है. कई बार तो कानूनी कार्यवाही की नौबत आ जाती है. (कृपया दी हुई विकी कड़ी पढें!)
ट्रोल महाशय के बारे में ये जानी -मानी बात है की इनके पास समय की कोई कमी नहीं होती,बैठे ठाले , विघ्नसंतोष में सुख पाने की मनोवृत्ती होती है, आत्मविश्वास और आत्मसम्मान की कमी होती है और अपने निजी जीवन में कोई सम्मानजनक स्थान प्राप्त नहीं होता है इन्हें।
ट्रोल (लेखन /लेखक )का उद्देश्य कुछ भी हो सकता है – वैमनस्य फ़ैलाना, लोगों का समय नष्ट करना, उन्हें खिन्न करना. अरुचिपूर्ण, अनुपयोगी और अनुत्पादक लेखन! एक शब्द में ’टेस्ट-लैस’!
ट्राल्लिंग करने वाला लोगों के ध्यानाकर्षण का भूखा होता है. तंग आ कर चालू अंग्रेजी वाले इन्हें “अट्टेंशन होर” [वैश्या -सम ध्यानाकर्षणा व्यहार करने वाला] कहने लगे हैं – जो एक किस्म का अपशब्द होते हुए भी फ़ोरम्स पर ‘ट्रॉल्स’ से अधिक प्रचलित शब्द हो गया है।
ट्रॉल्स का हश्र तय है. जैसे सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिये उछल-कूद या तोड़ -फ़ोड़ करता बदतमीज़ बद् -तमीज़ बच्चा चांटा खाने से लेकर कमरे के बाहर कर दिये जाने तक किसी भी किस्म की सज़ा पाता है वैसे ही ऐतिहासिक रूप से ट्रॉल्स को डिसकशन फ़ोरम्स या ईमेल ग्रुप्स पर से लानत-मलामत कर के बैन किया जाता रहा है. जो बगिया लगाना जानते हैं उन्हें खरपतवार से निपटना आता है. मॉडरेटर्स की नियमावली पूर्व-निर्धारित होती है और समूह के भले के लिये अनुशासन की कार्यवाही करना पड़ती है.
चेताने पर ट्रॉल्स अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देते हैं और समूह की नींव रखने वालों को फ़ासीवाद, तानाशाही, तालिबानियत की तोहमतें लगाते हैं. घड़ियाली आंसू और बकवाद शुरु करते हैं अत: कई बार उन्हें बैन करने की कार्यवाही एक झटके में की जाती है – बिना किसी पूर्व सूचना के- जनता इतनी त्रस्त हो चुकती है राहत की सांस लेती है – “गुड रिड्डेंस”! शहीदी सुख लेने का कोई मौका नहीं मिलता. कई बार तो ट्रॉल्स के घर,दफ़्तर आदि के पते से आने वाले किसी नई सदस्यता के निवेदन तक को ख़ारिज़ कर दिया जाता है.
समय के साथ ये हुआ है की जो लोग कल तक डिसकशन-फ़ोरम्स से जुड़े थे वे आज चिट्ठाकारी से आ जुड़ें हैं, पीछे -पीछे ट्रॉल्स भी आए और इनसे जुड़ी समस्याएं भी. मंतव्य ये है की इन्टरनेट पर सक्रिय रहने वालों का एक पुरानी बीमारी से सामना होता रहा है. कुछ नया नहीं है. मैने इस विषय पर पहले भी लिखा है और एक अमरीकी ब्लागर का अनुभव भी यहां बांटा है. समाधान हैं -तकनीकी भी और कानूनी भी.
तकनीकी रूप से अगर देखें तो समूहों के वेब-आधारित एग्रिगेटर्स [जैसे की हिंदीब्लाग्स, नारद आदि ] का प्रारूप डिसकशन फ़ोरम्स [जैसे की परिचर्चा] से भिन्न होता है.
एग्रीगेटर का काम होता है पाठकों को सूचित करना की किसी ने अपनी स्वयं की वेबसाइट पर कुछ लिखा है. क्या लिखा है वो लिखने वाला जाने और क्या प्रतिक्रिया करनी है वो प्रतिक्रिया करने वाला जाने! एग्रीगेटर्स समभाव की भावना से चलते हैं, वे चिट्ठाकारों के विवेक पर विश्वास करने की अवधारणा के हिमायती होते हैं. उनके आत्मानुशासन, संवेदनशीलता और सहनशीलता पर निर्भर होते हैं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बड़े पैरोकार होते हैं. वे सैद्धांतिक रूप से माडरेशन के हिमायती नहीं लेकिन कोई भी एग्रीगेटर स्वछंदता की धमाचौकड़ी और अतिक्रमण के अतिरेक का महीन फ़र्क करने के लिये स्वतंत्र होता है.
ट्रॉल्स से निपटने के कई स्तर पर कई तरीके होते हैं -
१. नज़र-अंदाज़ करना.
२. ब्रांडिंग करना – जैसे की फ़ीड के आगे लिख सकते हैं – “सावधान: भडकाऊ चिट्ठा”
३. अपमानित करना – चिट्ठे की कड़ी की फ़ांट बाकियों से छोटी कर देना. ये तकनीक बेशर्मों पर काम नही करती.
४. ट्रोल्ल रेटिंग देना.
५. तकनीकी/गैर-तकनीकी/विषयवत वर्गीकरण कर देना.
६. सदस्यता देना – जैसे की अगर एग्रीगेटर सबके लिये खुला है और फ़ीड जोड़ने पर कोई नियमावली नहीं हो तो ये विकल्प खुला है.
७. माडरेशन - मिडियेशन से शुरु होता है, रिस्ट्रीक्शन से होते हुए परिणिती बैन करने तक जा सकती है.
८. डिलीशन – चिट्ठे की कड़ी हटाना. या उसे स्टेल टेक्स्ट में बदल देना.
९. बैन करना – ये समूह के सदस्यों के अधिक तंग हो जाने पर किये जाने वाली कार्यवाही है. कई बार इसका सहारा तब लिया जाता है जब व्यक्तिगत हमले होने लगें, सूचनाएं तोड़ -मरोड़ कर प्रस्तुत की जानी लगे और समय या सामूहिकता नष्ट करवाने के प्रयास किया जाने लगें.
१०. बहिष्कार करना- समूह ट्राल्स का सामूहिक बहिष्कार कर देता है – उनकी सदस्यता तो नहीं हटाई जाती लेकिन उन्हें पढना बंद कर दिया जाता है. उनके विषय में बात करना या प्रतिक्रियाएं भी बंद कर दी जाती हैं. ये रास्ता जनता खुद चुनती है, हां उन्हें ये बताने की आवश्यकता होती है की समस्या बड़ी नहीं है और उसका स्वाभाव क्या है. समस्या खड़ी करने वाली की मानसिकता विघ्नसंतोष और ध्यानाकर्षण की मारी हुई है. दयनीय है. अनुभवी प्रयोगकर्ताओं के अनुसार - शुष्क तकनीकी रूप से देखा जाए तो ट्राल्स द्वारा किये गये लेखन के प्रति निर्णय लेना कठिन नही होता क्योंकी किसी प्रकार की पक्षिय-विपक्षिय पक्षीय -विपक्षीय भावनात्मकता का अधिक स्थान नहीं होता. उस्तादों के हिसाब से बहिष्कार सबसे कारागर उपाय है लेकिन अगर सामूहिक रूप से लगातार किया जा सके!
हां दूसरे विकल्प तो खुले ही हैं!
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