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कर्म, अकर्म एवं विकर्म by Shri Manish Dev ji(Maneshanand ji), SI-10, Divya Srijan Samaaj

कर्म, अकर्म एवं विकर्म by Shri Manish Dev ji(Maneshanand ji), SI-10, Divya Srijan Samaaj

प्रकृति स्वयं कर्म परायण है। ये जीव जो प्रकृति के वश रहता है यह भी कर्म परायण है प्रकृति (इसके तीन गुण )जीव से कर्म करवा ही लेते है। भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कर्म ,अकर्म और विकर्म का स्वरूप समझाते हुए कहते हैं -हे अर्जुन 

कर्म क्या है और अकर्म क्या है इसे लेकर बड़े बड़े ग्यानी व्यामोह में फंसे रहते हैं। कर्मों की गति बड़ी गहन है। 


किम कर्म किमकर्मेति कव्योअपयत्र मोहिता : | 

तत् ते  कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यते अशुभात || 

कर्म के फल का स्वरूप कैसा होगा उसके हिसाब से कर्म को तीन भागों में बांटा जा रहा है :

कर्म ,अकर्म ,विकर्म। 

कर्म करने में नीयत के अनुसार फल मिलता है मंदिर में रहने वाला पुजारी पूजा अर्चना भगवान् को नहलाना आदि कर्म करता हुआ दिख सकता है लेकिन अगर उसकी नीयत कहीं और है भोग विलास में है तो उसका कर्म अकर्म हो जाएगा। इसी प्रकार एक नेता या समाज सेवी ऊपर से समाज सेवा  में संलग्न दिख सकता है लेकिन अगर उसकी नीयत वहां नहीं है सेवा में उसका मन नहीं है किसी और एषणा में  गुंथा है तो उसका कर्म भी अकर्म  हो जाएगा। 

शुकदेव और राजा जनक की कथा आती है राजा जनक  गृहस्थ हैं उनका राज पाट है लेकिन मन सन्यासी है और शुकदेव बैरागी हैं लेकिन जब तत्वज्ञान विमर्श के दौरान सैनिक आकर बतलाते हैं महाराज भीषण आग आपके अपने महल के द्वार तक आ पहुंची तब राजा जनक ज़रा भी विचलित नहीं होते लेकिन शुकदेव उठकर द्वार की और भागते हैं राजा जनक पूछते हैं शुकदेव तुम कहाँ जा रहे हो। महाराज मेरा दंड कमण्डलू द्वार पर है उसे लेने जा रहा हूँ। तब राजा जनक कहते हैं शुकदेव मेरा सारा महल जल गया और तुम एक कमण्डलू के लिए तत्वज्ञान की चर्चा छोड़ भाग रहे हो।

यद्यपि जनक राजपाट कर्म में लगे हुए हैं लेकिन उन्हें उससे कोई मोह नहीं। वह ईश्वरीय ज्ञान प्राप्ति उन्मुख हैं। मन उनका बैरागी है। नीयत उनकी ईश्वरीय ज्ञान में लगी है। राजपाट उनका कर्म  भले है। ऊपर से दिख रहा है वह राजपाट संभाल रहे हैं। प्रजा का पालन कर रहे हैं। लेकिन राजा जनक के जीवन का उद्देश्य तो ईश्वरत्व की प्राप्ति है।एक महासमाधि की ओर वह बढे चले जा रहे हैं  इसलिए उनका यह कर्म अकर्म हो जाता है। उस कर्म का फल प्राप्त नहीं होता जो अकर्म हो जाता है। 

विश्वामित्र ने घोर तप किया इंद्र ने मेनका को उनका तप भंग करने के लिए भेजा। विश्वामित्र उसके आकर्षण से विमोहित हुए उनका तप भंग हुआ। विक्षोभ और क्रोध पैदा हुआ तप  भंग से। वह  मुनि वशिष्ठ के पास उनकी हत्या करने के इरादे से गए। वहां जाकर देखा वशिष्ठ जी तो उन्हें बहुत प्रेम करते हैं आत्मग्लानि से भरे उनके पैरों पर गिर गए रोते हुए बोले मेरा सब कुछ नष्ट हो गया। वशिष्ठ ने उन्हें उठाया और कहा -जो कुछ तुम्हारे पास था वह सब अभी भी है तुम्हारा लक्ष्य अभी भी वही है। तुम्हारी नीयत में खोट नहीं है। 

कृष्ण अर्जुन से कहते हैं अर्जुन तुम युद्ध अपने हिस्से का राजपाट हासिल करने के लिए नहीं कर रहे हो तुम धर्म युद्ध में रत हो इसलिए इसका फल तुम्हें नहीं मिलेगा। तुम्हारा उद्देश्य पवित्र है। महान है धर्म की रक्षा है । कर्म किस भावना से किया जा रहा है कर्म करने वाले की नीयत ही उस कर्म को  अकर्म में परि-वर्तित  कर देती है। भगवान् उसकी नीयत को ही ग्रहण करते हैं और उसकी नीयत के हिसाब से ही उसे फल प्राप्त कराते हैं। 

बुरी नीयत से किया जाने वाला बाहर से अच्छा दिखने वाला कर्म भी व्यर्थ है। प्रदर्शन के लिए किया गया कर्म मिथ्या आचरण है पाखंड है। 

अकर्म का अर्थ है कर्मों के फल में स्पृहा न होना है। 

आखिर  दुनिया में  बशर को रहना वाहिद   किस तरह ,

जिस तरह तालाब के पानी में रहता हैं कमल। 

वह रहता पानी में है लेकिन उसका मुख सूर्य की और रहता है। 

राजा जनक रहते तो राजपाट में हैं लेकिन उनका मन  परमात्मा में रहता है।  

कर्म विकर्म (निषेध कर्म )तब हो जाता है जब व्यक्ति का सम्पूर्ण स्वार्थ उस कर्म में लग जाता है। समाज में धर्म विरोधी तत्व सक्रिय हैं कुछ ऐसे ही तत्व कहते हैं महाभारत को घर में मत रखो उससे घर में कलह कलेश हो जाएगा यह दुष्प्रचार करते हैं । सनातन धर्म विरोधी तत्वों ने ऐसा प्रचार किया है। 

दूसरे ऐसे लोग हैं जिन्होनें महाभारत कभी पढ़ी ही नहीं वह कृष्ण पर आरोप लगाते हैं। आरोप यह  है :

भगवान् कृष्ण ने महाभारत करवा दिया। अर्जुन को बारहा प्रेरित किया तू  युद्ध कर युद्ध कर कहकर। महाभारत को पढ़ेंगे तो पता चलेगा महाभारत को रोकने का सबसे बड़ा प्रयास भगवान् कृष्ण ने ही किया जो राजा बन के नहीं दूत बन के गये। कहा पांच गाँव ही दे दो पांडवों को उसके इंकार करने पर पांच मकान ही देने को कहते हैं दुर्योधन से.

दुर्योधन   भगवान् को बंदी बनाने का प्रयास करते हैं कहते हुए सुईं  की नौंक के बराबर भी भूमि पांडवों को युद्ध के बिना नहीं दूंगा। 


भगवान् तो कर्म करना सिखाते हैं। कर्म कैसे करना है यह सिखाते हैं। कर्म अकर्म और विकर्म का रहस्य समझाते हैं। अर्जुन तो निमित्त मात्र हैं यह सन्देश  हम सभी के लिए है। 


सन्दर्भ सामिग्री :


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